राजा राममोहन राय की जीवनी पर एक निबंध : भारत और बंगाल के नवयुग का जनक राजा राममोहन राय है। उन्होंने पुरानी हिंदू रीति-रिवाजों को तोड़ते हुए महिलाओं और समाज के हित में कई सामाजिक कार्य किए। उन्होंने भारत के इतिहास में सती प्रथा का विरोध करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में नामांकित किया है। लेकिन इसके अलावा भी राजा राम मोहन राय को आज भी सम्मान प्राप्त है। राममोहन एक महान शिक्षक ही नहीं थे; वे एक विचारक और प्रवर्तक भी थे। वो कलकत्ता के एकेश्वरवादी समाज को भी बनाया था। राम मोहन राय ने इंग्लिश, विज्ञान, पश्चिमी चिकित्सा और तकनीक जैसे नवीन विषयों के अध्ययन के पक्षधर बने जब भारतीय भाषा और संस्कृति को ही सम्मान दिया जाता था।
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राजा राममोहन राय की जीवनी का संक्षिप्त परिचय :
पूरा नाम: राजा राममोहन राय
जन्म: 22 मई 1772 को हुआ था।
जन्म स्थान: बंगाल के हूगली जिले में राधानगर गाँव
पिता का नाम: रामकंतो रॉय
माता: तैरिनी
पेशा: ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करना, जमींदारी करना और सामाजिक क्रांति करना
प्रसिद्धि: सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह के खिलाफ
पत्रिकाएं: ब्रह्मोनिकल पत्रिका, संबाद कौमुडियान्द मिरत-उल-अकबर
इनके प्रयासों से 1829 में सती प्रथा पर कानूनिक प्रतिबंध लगाया गया।
हिन्दू धर्म में अन्धविश्वास और कुरीतियों का विरोध हमेशा से रहा है।
मृत्यु: 27 सितंबर 1833 को ब्रिस्टल के पास स्टाप्लेटोन में
मृत्यु का कारण: मेनिन्जाईटिस
सम्मान: मुगल महाराजा ने उन्हें राजा का दर्जा दिया । 1824 में, फ्रेंच Société Asiatique ने संस्कृत में उनके अनुवाद का सम्मान दिया।
[चित्र: श्री राम मोहन राय]
Q: राजा राममोहन राय कौन थे और उनका नाम प्रसिद्ध क्यों है?
उत्तर: यह उत्तरी समाज सुधारक थे और सती प्रथा को रोकने वाले पहले व्यक्ति थे. उन्होंने ही ब्रह्म समाज की स्थापना की।
Q: राजा राममोहन राय के शिक्षक
उत्तर: वे रबींद्रनाथ टैगोर को अपने गुरु मानते थे और उनके मार्ग पर चलते थे।
Q: राजा राममोहन राय ने समाज बनाया था?
उत्तर: ब्रह्म समाज
Q: ब्रह्म समाज का निर्माण कब हुआ?
उत्तर: १८०० अठाईस
Q: राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज का गठन कब किया?
उत्तर: राजा राममोहन राय ने आत्मीय सभा को उत्तर 1814 में शुरू किया था, जो 1828 में ब्रह्म समाज के नाम से जाना गया था।
Q: राजा राममोहन राय किस संस्कृति के खिलाफ थे?
उत्तर: मुख्यतः सती प्रथा का विरोध करते थे; वे बाल विवाह को धार्मिक अंधविश्वास मानते थे, और विधवा पुनर्विवाह जैसे सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते थे।
राजा राममोहन राय का जन्म और परिवार
राम मोहन का जन्म 22 मई 1772 को राधानगर नामक एक गाँव में बंगाल के हूगली जिले में हुआ था। उनके पिता रामकंतो रॉय था, और उनकी माता तैरिनी था। राम मोहन का परिवार वैष्णव था, जो धार्मिक मुद्दों पर बहुत कट्टर था।
जैसा कि उस समय आम था, वे 9 वर्ष की उम्र में शादी कर लिया, लेकिन उनकी पहली पत्नी का जल्द ही देहांत हो गया। 10 वर्ष की उम्र में उन्होंने दूसरी शादी की, जिससे उनके दो पुत्र हुए. लेकिन 1826 में उसकी दूसरी पत्नी का भी देहांत हो गया, और उसकी तीसरी पत्नी भी बहुत देर नहीं जीवित रह सकी।
राजा राममोहन राय
15 वर्ष की उम्र में राजा राममोहन ने बंगला, पर्शियन, अरेबिक और संस्कृत जैसी भाषाएँ सीख ली थी, जो उनकी विद्वता का प्रमाण है।
राजा राममोहन राय ने गाँव के स्कूल से संस्कृत और बंगाली दोनों भाषाओं में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। लेकिन वे बाद में पटना के मदरसे में गए, जहाँ वे अरेबिक और पर्शियन भाषा सीखते थे। 22 वर्ष की उम्र में वे इंग्लिश सीख चुके थे, और संस्कृत के लिए काशी गए, जहाँ वे वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करते थे।
राजा राममोहन का विद्रोही जीवन शुरू
वह हिंदू धर्म और उसके रिवाजों के खिलाफ थे।वे समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों का दृढ़ विरोध करते थे। लेकिन उनके पिता कट्टर वैष्णव ब्राह्मण धर्म का पालन करते थे।
14 वर्ष की उम्र में उन्होंने सन्यास लेने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन उनकी माँ ने ऐसा नहीं किया।
राजा राममोहन राय और उनके पिता के बीच मतभेद रहने लगे क्योंकि वे परम्परा विरोधी मार्ग पर चले और धार्मिक मूल्यों का विरोध करते थे। और विवाद बढ़ा तो वे घर छोड़कर हिमालय और तिब्बत की ओर चले गए।
वापिस घर लौटने से पहले, उन्होंने देश और दुनिया की वास्तविकता को भी जाना-समझा। इससे उनकी धार्मिक रुचि बढ़ने लगी, लेकिन फिर भी घर लौट आए।
जब उनकी शादी हुई, उनके परिवार ने सोचा था कि राम शादी के बाद अपने विचार बदल लेंगे, लेकिन उनके वैवाहिक दायित्वों ने उन पर कोई असर नहीं डाला।
विवाहित होने के बाद भी उन्होंने वाराणसी जाकर उपनिषद और हिन्दू धर्म का अध्ययन किया। लेकिन 1803 में उनके पिता की मृत्यु होने पर मुर्शिदाबाद लौट आए।
राजा राममोहन राय के व्यवसायिक जीवन
पिता की मृत्यु के बाद वे कलकता में जमीदारी का काम करने लगे. 1805 में, ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निम्न पदाधिकारी जॉन दिग्बॉय ने उन्हें पश्चिमी साहित्य और संस्कृति से परिचित कराया। उन्होंने अगले दस साल तक दिग्बाय के असिस्टेंट के रूप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में काम किया, फिर 1809 से 1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी के रीवेन्यु डिपार्टमेंट में काम किया।
राजा राममोहन का वैचारिक परिवर्तन
1803 में, रॉय ने हिन्दू धर्म और अंधविश्वासों पर अपनी राय दी। उन्होंने वेदों और उपनिषदों को बंगाली, हिंदी और इंग्लिश में अनुवाद करके एकेश्वरवाद, जिसके अनुसार एक ईश्वर ही सृष्टि का निर्माता है, का समर्थन किया। रॉय ने इनमें बताया कि इस ब्रह्मांड को चलाने वाली एक महाशक्ति हैं, जो मानव से अलग हैं।
1814 में, राजा राम मोहन राय ने आत्मीय सभा का गठन किया। आत्मीय बैठक का वास्तविक लक्ष्य समाज में सामजिक और धार्मिक मुद्दों पर पुनर्विचार कर बदलाव लाना था।
महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए राम मोहन ने बहुत कुछ किया। जिनमें मुख्य उद्देश्यों में से एक विधवा विवाह और महिलाओं को जमीन पर अधिकार दिलाना था। उनकी पत्नी की बहिन को सताना बहुत विचलित करता था। यही कारण था कि राम मोहन ने सती प्रथा का तीव्र विरोध किया। बाल विवाह और बहुविवाह भी उनके विरोध में थे।
उन लोगों ने महिला शिक्षा के लिए बहुत कुछ किया क्योंकि वे इसे समाज की आवश्यकता समझते थे। उन्हें लगता था कि इंग्लिश भारतीय भाषाओं से अधिक विकसित और समृद्ध है, और उन्होंने सरकारी स्कूलों को संस्कृत पढ़ाने के लिए सरकारी धन का भी विरोध किया। 1822 में उन्होंने इंग्लिश स्कूल की स्थापना की।
ब्रह्म समाज को 1828 में राजा राम मोहन राय ने स्थापित किया। इसके द्वारा वे धार्मिक प्रथाओं और क्रिश्चियन धर्म के बढ़ते प्रभाव को समझना चाहते थे।
1829 में सती प्रथा पर रोक लगा दी गई, जिससे राजा राम मोहन राय के अभियान सफल हुए।
ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते हुएउन्हें वेदांत के सिद्धांतों को पुन: परिभाषित करने की जरूरत है। उन्हें पश्चिमी और भारतीय संस्कृतियों का एकीकरण करना था।
ब्रिटिश राज के दौरान देश कई सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से गुजर रहा था। ऐसे में राजा राम मोहन ने समाज के कई क्षेत्रों में योगदान दिया था, जो निम्नलिखित हैं:
राजा राममोहन राय की शिक्षक योग्यता
राजा राममोहन राय ने कलकता में हिंदू कॉलेज की स्थापना की, जो बाद में देश का सर्वश्रेष्ठ शैक्षिक संस्थान बन गया। रॉय ने वनस्पति शास्त्र, केमिस्ट्री और फिजिक्स जैसे विज्ञानों को बढ़ावा दिया। वह चाहते थे कि देश के बच्चों को नयी से नयी तकनीक की जानकारी हासिल करने के लिए स्कूलों में इंग्लिश भी पढ़ाया जाए, क्योंकि उन्हें इसका फायदा होगा।
1815 में, राजा राममोहन शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए कलकत्ता आए। उनका विचार था कि भारतीयों को गणित, जियोग्राफी और लैटिन भाषा का ज्ञान नहीं होगा तो वे पीछे रह जाएंगे। राम मोहन का विचार सरकार ने स्वीकार किया, लेकिन उनकी मृत्यु तक इसे लागू नहीं किया। राम मोहन ने अपनी मातृभाषा का विकास पहले देखा। बंगाली साहित्य में उनका गुडिया व्याकरण अद्वितीय है। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्य और रबिन्द्र नाथ टेगोर ने भी उनके पद चिन्हों का अनुकरण किया।
राजा राम मोहन राय और सती प्रथा
उस समय भारत में सती प्रथा का प्रचलन था। ऐसे में गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक ने राजा राम मोहन के अथक प्रयासों से इस प्रथा को रोकने में उनकी सहायता की। उन्होंने ही 17 ईस्वी 1829 के बंगाल कोड, या बंगाल सती रेगुलेशन, पारित किया, जो सती प्रथा को राज्य में कानूनन अपराध मानता था।
सती प्रथा क्या था?
इस प्रथा में मरने वाली महिला को सती कहा जाता था, और मरने वाले पति की चिता में बैठकर जल जाती थी। विभिन्न कारणों से देश भर में यह प्रथा शुरू हुई, लेकिन 1800 के दशक में यह अधिक लोकप्रिय हो गया। और ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों ने इसे बढ़ावा दिया। राजा राममोहन राय ने इसके विरोध में इंग्लैंड गया और सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ गवाही दी।
मूर्तिपूजा पर प्रतिबंध
राजा राममोहन राय ने एकेश्वरवाद का पक्ष भी लिया और मूर्ति पूजा का खुलकर विरोध किया। साथ ही, वे “ट्रिनीटेरिएस्म” का विरोध करते थे, जो क्रिश्चियन धर्म में मान्यता है। यह कहता है कि भगवान सिर्फ तीन लोगों में मिलता है: गॉड, सन (उसका पुत्र), जीसस और होली स्पिरिट। उन्हें बहुदेववाद और विभिन्न धर्मों की पूजा का भी विरोध था। वह एकमात्र भगवान थे जो इस बात का पक्षधर था। उनका सुझाव था कि लोग विवेक और तर्कशक्ति को बढ़ाना चाहिए। इन शब्दों से उन्होंने इस मामले में अपनी राय व्यक्त की:
“मैंने देश के दूरस्थ इलाकों का भ्रमण किया है और मैंने देखा कि सभी लोग ये विश्वास करते हैं कि एक ही भगवान हैं जिससे दुनिया चलती है।” बाद में उन्होंने आत्मीय बैठक की, जिसमें उन्होंने दर्शन-शास्त्र और धर्म के बारे में विद्वानों से चर्चा की।
महिलाओं की वैचारिक स्वतन्त्रता:
राजा राममोहन रॉय ने महिला स्वतंत्रता का भी पक्ष लिया था। वह महिलाओं को समाज में उचित स्थान देने के पक्षधर थे। उन्होंने सती प्रथा का विरोध करने के साथ-साथ विधवा विवाह के पक्ष में भी आवाज उठाई। साथ ही उन्होंने कहा कि बालिकाओं को भी बालकों की तरह अधिकार मिलने चाहिए। साथ ही, उन्होंने ब्रिटिश सरकार से मौजूदा कानून को बदलने की मांग की। वह भी महिला शिक्षा के पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने महिलाओं को स्वतंत्र विचार करने और अपने अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रेरित किया।
जातिवादी व्यवस्था का विरोध:
उस समय तक, भारतीय समाज का जातिगत वर्गीकरण पूरी तरह से बिगड़ गया था। ये कर्म पर नहीं बल्कि वर्ण पर आधारित थे। क्रमानुसार: अभी भी चल रहे हैं। लेकिन जातिवाद से उत्पन्न असमानता का विरोध करने वाले समाज-प्रवर्तकों में राजा राममोहन रॉय का नाम भी शामिल है। उनका कहना था कि परम पिता परमेश्वर हर व्यक्ति का पुत्र या पुत्री है। मानव में इसलिए कोई विभेद नहीं है। समाज में शत्रुता और घृणा का कोई स्थान नहीं है. सभी को समान हक मिलना चाहिए। राजा राम मोहन ने ऐसा करके सवर्णों की आँख में खटकने लगे।
वेस्टर्न शिक्षा की वकालत (Western Education Advocate):
जैसा कि पहले बताया गया था, राजा राम मोहन की कुरान, उपनिषद, वेद और बाइबल जैसे धार्मिक ग्रंथों पर बराबर की पकड़ थी, इसलिए उनका दूसरी भाषा में आकर्षण होना स्वाभाविक था। इंग्लिश के माध्यम से वो भारत के विज्ञान और सामाजिक क्षेत्रों में हुआ विकास देख सकते थे।
उनके युग में प्राचिविद सभ्यता और पश्चिमी सभ्यता के बीच संघर्ष चल रहा था। तब उन्होंने इन दोनों के एकीकरण के साथ आगे बढ़ने का इरादा व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि बॉटनी, फिलोसफी, मैथ्स और फिजिक्स जैसे विषयों को पढ़ने के अलावा वेदों और उपनिषदों को भी पढ़ना चाहिए।
उन्हें लार्ड मेक्ले भी सपोर्ट मिला, जो भारत की शिक्षा व्यवस्था में इंग्लिश को शामिल करने का प्रयास किया था। उनका लक्ष्य था भारत को विकसित करना। वो 1835 तक भारत में चलने वाले इंग्लिश स्कूल प्रणाली को देखने के लिए जीवित नहीं रहे, लेकिन इस बात को महसूस करने वाले पहले विचारकों में से भी एक थे।
भारतीय पत्रकारिता के पिता:
उन्होंने भारत की पत्रकारिता में बहुत काम किया और अपने लेखों में देश की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर ध्यान दिया। जिससे लोग जागरूक होने लगे। उनके लेखन ने लोगों को बहुत प्रभावित किया। Hindi और Bengali के समान, वह इंग्लिश में भी अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते थे। जिससे उनकी बातें आम लोगों और अंग्रेजी हुकुमत तक पहुंच गईं।
रॉबर्ट रिचर्ड्स ने राममोहन के लेखन की प्रशंसा करते हुए लिखा, “राममोहन का लेखन ऐसा हैं जो उन्हें अमर कर देगा,और भविष्य की जेनेरेशन को ये हमेशा अचम्भित करेगा कि एक ब्राह्मण और ब्रिटेन मूल के ना होते हुए भी वो इतनी अच्छी इंग्लिश में लिख सकते हैं।”
अर्थव्यवस्था से जुड़े विचार:
राम मोहन के विचार आर्थिक क्षेत्र में लोकप्रिय थे। वो आम लोगों की संपत्ति की रक्षा करने के लिए सरकार का हस्तक्षेप चाहते थे। हिन्दुओं के अपने पैतृक संपत्ति के अधिकारों की रक्षा भी उनके लेखों का विषय था। उन्होंने किसानों के हितों को बचाने के लिए सरकार से भी मदद मांगी थी, जो तब जमीदार कहलाते थे। उन्हें लार्ड कार्नवालिस द्वारा 1973 में दिए गए परमानेंट सेटलमेंट के खतरे से पता था, इसलिए उन्हें ब्रिटिश सरकार से उम्मीद थी कि वह किसानों को जमीदारों को बचाएगा। उन्हें भी जमीन संबंधी मुद्दों में महिला अधिकारों का बचाव किया गया।
अन्तर्राष्ट्रीय चैंपियन
रविन्द्र नाथ टैगो ने भी कहा, “राममोहन ही वो व्यक्ति हैं जो आधुनिक युग को समझ सकते हैं।” उन्हें पता था कि आदर्श समाज का निर्माण स्वतन्त्रता को खत्म कर दूसरों का शोषण करने से नहीं हो सकता, बल्कि भाईचारे से रहकर एक दूसरे की स्वतन्त्रता की रक्षा करने से होगा। वास्तव में, राममोहन सिंह विश्वविद्यालय धर्म, मानव सभ्यता के विकास और आधुनिक युग में समानता के पक्षधर थे।
राष्ट्रवाद का जन्मदाता:
राजा राममोहन ने व्यक्तिगत राजनीतिक स्वतंत्रता का भी समर्थन किया था। 1821 में वह जे।एस। जिस कलकता जर्नल के एडिटर थे, उसने बकिंघम को लिखा कि वे यूरोप और एशियाई देशों की स्वतंत्रता में विश्वास करते हैं। राम मोहन बहुत खुश हुए जब चार्ल्स एक्स ने 1830 की जुलाई क्रान्ति में फ्रांस पर कब्ज़ा कर लिया।
उन्होंने भारत के स्वतंत्रता और इसके लिए एक्शन लेने के के बारे में सोचने का भी कहा. इस कारण ही उन्होंने 1826 में आये जूरी एक्ट का विरोध भी किया. जूरी एक्ट में धार्मिक विभेदों को कानून बनाया था. उन्होंने इसके लिए जे-क्रावफोर्ड को एक लेटर लिखा उनके एक दोस्त के अनुसार उस लेटर में उन्होंने लिखा कि “भारत जैसे देश में ये सम्भव नहीं कि आयरलैंड के जैसे यहाँ किसी को भी दबाया जाए” इससे ये पता चलता हैं कि उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद का पक्ष रखा. इसके बाद उनका अकबर के लिए लंदन जाना भी राष्ट्रवाद का ही एक उदाहरण हैं.
सामजिक पुनर्गठन
उस समय बंगाली समाज बहुत सी कुरीतियों का समाना कर रहा था. ये सच हैं कि भारत में उस समय सबसे शिक्षित और सम्भ्रान्त समाज बंगाली वर्ग को ही कहा जा सकता था,क्योंकी तब साहित्य और संस्कृतियों के संगम का दौर था, जिसमें बंगाली वर्ग सबसे आगे रहता था. लेकिन फिर भी वहां कुछ अंधविश्वास और कुरीतियाँ थी जिन्होंने समाज के भीतर गहरी जड़ों तक अपनी जगह बना रखी थी. इन सबसे विचलित होकर ही राजा राममोहन राय ने समाज के सामाजिक-धार्मिक ढांचे को पूरी तरह से बदलने का मन बनाया. और इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उन्होंने ना केवल ब्रह्मण समाज और एकेश्वरवाद जैसे सिद्धांत की स्थापना की बल्कि सती प्रथा,बाल विवाह,जातिवाद, दहेज़ प्रथा, बिमारी का इलाज और बहुविवाह के खिलाफ भी जन-जागृति की मुहीम चलाई.
राजा राममोहन राय द्वारा लिखित पुस्तकें Raja Ram mohan roy books)
राजा राममोहन राय ने इंग्लिश,हिंदी,पर्शियन और बंगाली भाषाओं में की मेग्जिन पब्लिश भी करवाए. 1815 में उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की जो की ज्यादा समय तक नहीं चला. उन्हें हिन्दू धर्म के साथ क्रिश्च्निटी में भी जिज्ञासा जागरूक हो गई. उन्होंने ओल्ड हरब्यू और न्यू टेस्टामेंटस का अध्ययन भी किया.
1820 में उन्होंने एथिकल टीचिंग ऑफ़ क्राइस्ट भी पब्लिश किया जो की 4 गोस्पेल का एक अंश था. ये उन्होंने प्रीसेप्ट्स ऑफ़ जीसस के नाम के टाइटल से प्रकाशित करवाया था.
उस समय कुछ भी पब्लिश करवाने से पहले अंग्रेजी हुकुमत से आज्ञा लेनी पड़ती थी. लेकिन राजा राममोहन राय ने इसका विरोध किया. उनका मानना था कि न्यूज़ पेपर में सच्चाई को दिखाना चाहिए, और यदि सरकार इसे पसंद नहीं कर रही तो इसका ये मतलब नहीं बनता कि वो किसी भी मुद्दे को दबा दे. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर रहे राजा राममोहन रॉय ने कई पत्रिकाएं पब्लिश भी करवाई थी.
1816 में राममोहन की इशोपनिषद,1817 में कठोपनिषद,1819 में मूंडुक उपनिषद के अनुवाद आए थे. इसके बाद उन्होंने गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस, 1821 में उन्होंने एक बंगाली अखबार सम्बाद कुमुदी में भी लिखा. इसके बाद 1822 में मिरत-उल-अकबर नाम के पर्शियन journal में भी लिखा. 1826 मे उन्होंने गौडिया व्याकरण,1828 में ब्राह्मापोसना और 1829 में ब्रहामसंगीत और 1829 में दी युनिवर्सल रिलिजन लिखा.
राजा राम मोहन राय की मृत्यु (Raja Ram Mohan Roy Death)
1830 में राजा राम मोहन राय अपनी पेंशन और भत्ते के लिए मुगल सम्राट अकबर द्वितीय के राजदूत बनकर यूनाइटेड किंगडम गए. 27 सितम्बर 1833 को ब्रिस्टल के पास स्टाप्लेटोन में मेनिंजाईटिस के कारण उनका देहांत हो गया.
राजा राम मोहन राय और उन्हें मिले सम्मान (Raja Ram Mohan Roy and Awards)
उन्हें दिल्ली के मुगल साम्राज्य द्वारा “राजा” की उपाधि दी गयी थी. 1829 में दिल्ली के राजा अकबर द्वितीय ने उन्हें ये उपाधि दी थी. और वो जब उनका प्रतिनिधि बनकर इंगलैंड गए तो वहां के राजा विलियम चतुर्थ ने भी उनका अभिनंदन किया.
उनके वेदों और उपनिषद के संस्कृत से हिंदी, इंग्लिश और बंगाली भाषा में अनुवाद के लिए फ्रेंच Société Asiatique ने उन्हें 1824 में सम्मानित भी किया.